समाज को निकालना होगा रास्ता
हमारे भारत को यह क्या होता जा रहा है? कभी हम अपने आप को सोने की चिडिय़ा कहते थे, आज हर तरफ कंगाली का सा माहौल है। एक समय था जब हमारे यहां अपराध और अपराधी ढूंढे नही मिलते थे लेकिन आज हर तरफ उनकी और उनकी ही भरमार दिखाई पडती है। सनातन काल से हम इस बात पर गर्व महसूस करते थे कि नारी सम्मान में हमारा कोई सानी नहीं है। महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं अपराधों के भारतीय इतिहास में गिनती की मिलती थी और आज। शर्म आती है या चुल्लू भर पानी में डूब मरना कहना तो बहुत छोटा लगता है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों का आंकड़ा जिस तरह बढ़ रहा है, उसमें लगता नहीं कि अन्य क्षेत्रों में हमारी प्रगति कोई मायने रखती है। अब आंकड़े गिनाने या किस राज्य में कौन से अपराध ज्यादा है, इसक गिनती का भी कोई अर्थ नहीं है। हमाम में सब नंगे की तर्ज पर सारे राज्यों का एक हाल हैं। यही हाल अदालतों का नजर आ रहा है। पुलिस कुछ कती है तो जनता उस पर फूल बरसाने या उेस राखी बांधने लगती है।
दुष्कर्म की घटनाएं सामाजिक व्याधि है, जिसका इलाज तभी संभव है जब भावनाओं से कहीं अधिक तार्किक दुष्टिकोण को अधिक प्राथमिकता दी जाए। निरंतर घटने वाली किसी भी घटना के पीछे कभी भी एक कारण नहीं हो सकता और विशेषकर जब सामाजिक समस्या की बात हो तो यह नितांत आवश्यक हो जाता है कि उसके कारणों को जानने के लिए शोध किए जाए। दुष्कर्म की घटनाओं का जिम्मेदार खुद समाज है। सोशल मीडिया से विभिन्न वार्ताओं में यह सुनने में आ रहा है पर ये समाज क्या हमारे बगैर है? जब हम समाज का अभिन्न हिस्सा है तो केसे हम अपने दायित्वों से इतिश्री कर बैठते है। दुष्कर्मी जन्मजात अपराधी नहीं होते। परिस्थितियां, सामाजिक पर्यावरण और मानसिक विकृति उन्हें ऐसा बनाती है। पर क्या हमने ईमानदारी से कभी यह जानने की चेष्टा की है कि कौन सी परिस्थितियां है जो एक आम आदमी को दुष्कर्मी बना देती है।
संवेदनशीलता यकायक भीतर उत्पन्न नहीं की जा सकतीं, परंतु समाज की सुचारू अपराधमुक्त व्यवस्था का उत्तरदायित्व पुलिस प्रशासन पर है। अत: यह अपरिहार्य है कि वे इस संवेदनशीलता को अपने भीतर और बाहर न केवल स्वीकार करें बल्कि अपने आचरण में भी उतारें। हमें स्वीकारना होगा कि दुष्कर्म की घटनाएं किसी आमूलचूल सामाजिक क्रांति से खत्म नहीं हो सकती इसलिए न्यायपालिका पुलिस प्रशासन के उत्तरदायित्वों का विश्लेषण एवं मंथन कर उनमें सुधार की संभावनाएं ढूंढने के साथ बेटियों को सशक्त करना भी आवश्यक है।
इसीलिए वारदात कितनी भी घृणात्मक रही हो, न हम अपना संतुलन खो सकते हैं, न मॉब मेंटलिटी या लिंच मेंटलिटी का प्रदर्शन कर सकते हैं और न किसी फेक एनकाउंटर के ऊपर ताली बजा सकते हैं।